Welcome to Yahoo! Hindi: "प्रतिमा-विज्ञान या मूर्तिकला"
प्रतिमा-विज्ञान या मूर्तिकला
- सुधीर पिम्पले
भारत में आदिकाल से ही मन्दिरों एवं प्रासादों का बहुत महत्व है। भिन्न-भिन्न देवताओं की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित कर मन्दिरों का निर्माण किया जाता है, तथा इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर पूजा-अर्चना की जाती है। यह भारतीय संस्कृति का अविभाजित महत्वपूर्ण अंग है। इसका वास्तुशास्त्र में बहुत महत्व है। क्योंकि भिन्न-भिन्न देवताओं की प्रतिमाएँ, इनके अस्त्र-शस्त्र, वाहन व चेहरे के भावों को प्रकट कर उनमें ऊर्जा का संचार करना (प्राण-प्रतिष्ठा) वास्तुशास्त्र की विषय-वस्तु है।यहाँ पर यह समझना बहुत जरूरी है कि देवता शब्द संस्कृत के मूल 'देऊ' शब्द से बना है। जिसका अर्थ है, ऐसा प्रकाश जहाँ ऊर्जा भी है। वास्तुशास्त्र ऊर्जा का ही शास्त्र है।प्रतिमा-विज्ञान में विभिन्न देवताओं के वर्ण, अस्त्र-शास्त्र, ध्वज, आभूषण तथा चेहरे के भावों का अध्ययन किया जाता है तथा इनकी पूजा-अर्चना, मन्त्र-उच्चार, पूजा-विधि आदि की विवेचना की जाती है।वास्तुशास्त्र में विभिन्न देवताओं की पूजाल-अर्चना, मन्त्रोच्चारण करके वास्तु के दोषों को कम किया जाता है व आवश्यक ऊर्जाओं का भवनों में संचार किया जाता है। वास्तुशास्त्र में विभिन्न देवताओं का एवं प्रतिमाओं का इसलिए भी महत्व है, क्योंकि वास्तुपुरुष मंडल में दर्शाए गए 45 देवताओं की पूजा-अर्चना, अस्त्र-शस्त्र, वाहन आदि की विवेचना एवं वास्तुदोष-शोधन का विश्लेषण किया जाता है।वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि प्रत्येक देवता की प्रतिमा का आभा-मंडल होता है। आधुनिक कैमरों द्वारा लिए गए चित्रों से ज्ञात हुआ है कि सिद्ध मन्दिरों की मूर्तियों के आभा-मंडल हैं, जिसके सात रंग होते हैं। उपरोक्त सभी तथ्यों का विवेचन वास्तुशास्त्र में करते हैं। यह भी स्थापत्य वेद का एक महत्वपूर्ण अंग है।
(स्रोत - वेबदुनिया)
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